Tuesday, October 30, 2007

वो महकती पलकों की ओट से

वो महकती पलकों की ओट से कोई तारा चमका था रात में
मेरी बंद मुट्ठी न खोलिए वही कोह-ए-नूर है हाथ में

मैं तमाम तारे उठा उठा के गरीब लोगों में बाँट दूँ
कभी एक रात वो आसमां का निजाम दें मेरे हाथ में

अभी शाम तक मेरे बाग़ में कहीं फूल कोई खिला न था
मुझे खुशबुओं में बसा गया तेरा प्यार एक ही रात में

तेरे साथ इतने बहुत से दिन तो पलक झपकते गुज़र गए
हुई शाम खेल ही खेल में कटी रात बात ही बात में

कोई इश्क है कि अकेला रात की शाल ओढ़ के चल दिया
कभी बाल बच्चों के साथ आ ये पडाव लगता है रात में

कभी सात रंगों का फूल हूँ, कभी धूप हूँ कभी धुल हूँ
मैं तमाम कपडे बदल चुका तेरे मौसमों की बरात में

- डॉ बशीर बदर

गुरेज़ शब से, सहर से कलाम रखते थे

गुरेज़ शब से, सहर से कलाम रखते थे
कभी वो दिन थे कि जुल्फों में शाम रखते थे

तुम्हारे हाथ लगे हैं तो जो करो सो करो
वगरना तुम से तो हम सौ गुलाम रखते थे

हमें भी घेर लिया घर कि जाम ने तो खुला
कुछ और लोग भी उसमें कयाम रखते थे

ये और बात हमें दोस्ती न रास आई
हवा थी साथ तो खुशबू मकाम रखते थे

न जाने कौन सी रुत मे बिछड़ गए वो लोग
जो अपने दिल मे बहुत एहतराम रखते थे

- नौशी गिलानी

बिछड़ा है एक बार तो

बिछड़ा है एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

एक बार जिसे चाट गयी धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

यक्लख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आयीं
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा

काँटों में गिरे फूल को चूम आएँगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

-परवीन शकीर

परखना मत

परखना मत परखने से कोई अपना नहीं रहता
किसी भी आईने में देर तक चेहरा नहीं रहता

हज़ारों शेर मेरे सो गए कागज़ की कब्रों में
अजब माँ हूँ कोई बच्चा मेरा जिंदा नहीं रहता

बडे लोगों से मिलने में हमेशा फासला रखना
जहाँ दरिया समंदर से मिला दरिया नहीं रहता

तुम्हारा शहर तो बिल्कुल नए अंदाज़ वाला है
हमारे शहर में भी अब कोई हमसा नहीं रहता

कोई बादल नए मौसम का फिर ऐलान करता है
खिजां के बाग़ में जब एक भी पत्ता नहीं रहता

मोहब्बत एक खुशबू है हमेशा साथ रहती है
कोई इंसान तन्हाई में भी तनहा नहीं रहता

- डॉ बशीर बदर

शबनम हूँ सुर्ख फूल पे

शबनम हूँ सुर्ख फूल पे बिखरा हुआ हूँ मैं
दिल मोम और धूप में बैठा हुआ हूँ मैं
कुछ देर बाद राख मिलेगी तुम्हें यहाँ
लौ बन के इस चिराग से लिपटा हुआ हूँ मैं

- डॉ बशीर बदर

Friday, October 26, 2007

बहुत दिनों की बात है

बहुत दिनों की बात है
फिजा को याद भी नहीं
ये बात आज की नहीं
बहुत दिनों की बात है

शबाब पे बहार थी
फिजा भी खुशगवार थी
ना जाने क्यूं मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
किसी ने मुझको रोककर
बड़ी अदा से टोककर
कहा के लौट आइये
मेरी कसम न जाइये

पर मुझे खबर न थी
माहौल पे नज़र न थी
न जाने क्यूं मचल पड़ा
मैं अपने घर से चल पड़ा
ख़याल था के पा गया
उसे जो मुझसे दूर थी
मगर मेरी ज़रूर थी

और इक हसीन शाम को
मैं चल पड़ा सलाम को
गली का रंग देखकर
नयी तरंग देखकर
मुझे बड़ी ख़ुशी हुई
मैं कुछ इसी ख़ुशी में था
किसी ने झाँककर कहा
पराये घर से जाइए
मेरी कसम न आइये

वही हसीन शाम है
बहार जिसका नाम है
चला हूँ घर को छोड़कर
न जाने जाऊँगा किधर
कोई नहीं जो रोककर
कोई नहीं जो टोककर
कहे के लौट आइये
मेरी कसम न जाइये

मेरी कसम न जाइए....

- सलाम मछली शेहरी

Wednesday, October 24, 2007

चले भी आओ

चले भी आओ ये है कब्र-ए-फानी देखते जाओ
तुम अपने मरने वाले की निशानी देखते जाओ

सुने जाते न थे तुमसे मेरे दिन रात के शिकवे
कफ़न सरकाओ मेरी बेज़बानी देखते जाओ

उधर मुँह फेर कर क्या जिबह करते हो इधर देखो
मेरी गर्दन पर खंजर की रवानी देखते जाओ

गुरूर-ए-हुस्न का सदका कोई जाता है दुनिया से
किसी की खाक में मिलती जवानी देखते जाओ

वो उत्ठा शोर-ए-मातम आखरी दीदार-ए-मैहत पर
अब उत्ठा चाहती है लाश-ए-फानी देखते जाओ

- फानी बदायुनी

सारे जहाँ से अच्छा

सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलसितां हमारा

गुरबत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा

पर्वत वो सबसे ऊँचा हमसाया आसमां का
वो संतरी हमारा वो पास्बां हमारा

गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियाँ
गुलशन है जिनके दम से रश्क-ए-जहाँ हमारा

ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिन्दी हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा

कुछ बात है कि हस्ति मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहाँ हमारा

"इकबाल" कोई महरम अपना नहीं जहाँ में
मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहां हमारा

- इकबाल

आता है याद मुझको

आता है याद मुझको गुजरा हुआ ज़माना
वो बाग़ की बहारें वो सब का चहचहाना

आज़ादियाँ कहाँ वो अब अपने घोंसले की
अपनी ख़ुशी से आना अपनी ख़ुशी से जाना

लगती हो चोट दिल पर आता है याद जिस दम
शबनम के अंशुओं पर कलियों का मुस्कुराना

वो प्यारी प्यारी सूरत, वो कामिनी सी मूरत
आबाद जिस के दम से था मेरा आशियाना

- अल्लामा इकबाल

आज के दौर में

आज के दौर में ऐ दोस्त ये मंज़र क्यूँ है
ज़ख्म हर सर पे हर इक हाथ में पत्थर क्यूँ है

जब हकीक़त है के हर ज़र्रे में तू रहता है
फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मंदिर क्यूँ है

अपना अंजाम तो मालूम है सब को फिर भी
अपनी नज़रों में हर इंसान सिकंदर क्यूं है

जिंदगी जीने के काबिल ही नहीं अब "फकीर"
वर्ना हर आँख में अश्कों का समंदर क्यूं है

- सुदर्शन फकीर

आज के दौर में

आदम का जिस्म जबसे

आदम का जिस्म जबसे अनासर से मिल बना
कुछ आग बच रही थी सो आशिक का दिल बना

सरगर्म-ए-नाला आजकल मैं भी हूँ अंदलीब
मत आशियाँ चमन में मेरे मुत्तसिल बना

जब तेशा कोह्कान ने लिया हाथ तब से इश्क
बोला के अपनी छाती पे रखने को सिल बना

जिस तीरगी से रोज़ है उशाक का सियाह
शायद उसी से चेहरा-ए-खुबां पे तिल बना

लब ज़िंदगी मैं कब मिले उस लब से ऐ कलाल
सागर हमारी खाक को मत कर के गिल बना

अपना हुनर दिखा देंगे हम तुझको शीशागर
टूटा हुआ किसी का अगर हमसे दिल बना

सुन सुन के अर्ज़-ए-हाल मेरा यार ने कहा
"सौदा" न बातें बैठ के यां मुत्तसिल बना

- मोहम्मद रफी "सौदा"

Monday, October 22, 2007

अक्स खुशबू हूँ!

अक्स खुशबु हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई

कांप उठती हूँ मैं ये सोचकर तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई

जिस तरह ख्वाब मेरे हो गए रेजा रेजा
इस तरह से न कभी टूटके बिखरे कोई

मैं तो उस दिन से हरासां हूँ कि जब हुकुम मिले
खुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई

अब तो इस राह से वो शख्स गुजरता ही नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झांके कोई

कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं
दिल की गलियां बड़ी सुनसान हैं आये कोई

- परवीन शकीर

रकीब से

आ कि वाबस्ता है उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परिखाना बना रक्खा है
जिसकी उल्फत में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफसाना बना रक्खा है।

तूने देखी है वो पेशानी वो रुखसार वो होंठ
ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझपे उट्ठिं हैं वो खोई खोई साहिर आंखें
तुझको मालुम है क्यों उम्र गँवा दी हमने।

- फैज़

Friday, October 19, 2007

मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं

मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आंखें, में कोई तमाशा तो नहीं

ज़िंदगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूं
शौक जीने का है मुझको पर इतना तो नहीं

रूह को दर्द मिल, दर्द को आंखें न मिलीं
तुझे महसूस किया है, तुझे देखा तो नहीं

सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा
जेहन की तह में मुजफ्फर कोई दरिया तो नहीं

- मुजफ्फर वारसी

वो तो खुशबु है

वो तो खुशबु है हवाओं में बिखर जाएगा
मसला फूल का है फूल किधर जायेगा

हम तो समझे थे के एक जख्म है भर जाएगा
क्या खबर थी की रग-ए-जां में उतर जाएगा

वो हवाओं की तरह खाना-बजां फिरता है
एक झोंका है जो आयेगा गुज़र जाएगा

वो जब आयेगा तो फिर उसकी रफाकत के लिए
मौसम-ए-गुल मेरे आँगन में ठहर जाएगा

अखिराश वो भी कहीं रेत पे बैठी होगी
तेरा ये प्यार भी दरिया है उतार जाएगा

- परवीन शकीर

हस सू दिखाई देते हैं वो जलवागार मुझे

हर सू दिखाई देते हैं वो जलवागार मुझे
क्या क्या फरेब देती हैं मेरी नजर मुझे

आया न रास नाला-ए-दिल का असर मुझे
अब तुम मिले तो कुछ नहीं अपनी खबर मुझे

डाला है बेखुदी ने अजब राह पर मुझे
आंखें है और कुछ नहीं आता नजर मुझे

करना है आज हजरत-ए-नासेह से सामना
मिल जाये दो घडी को तुम्हारी नजर मुझे

यकसां है हुस्न-ओ-इश्क की सर्मस्तियों का रंग
उनकी खबर उन्हें है न अपनी खबर मुझे

में दूर हूँ तो रूह-ए-सुखन मुझसे किसलिए
तुम पास हो तो क्यों नहीं आते नजर मुझे

दिल लेके मेरा देते हो दाग-ए-जिगर मुझे
यह बात भुलाने की नहीं उम्र भर मुझे

- दाग

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं

दिल में किसी के राह किये जा रहा हूँ मैं
कितना हसीं गुनाह किये जा रहा हूँ मैं

दुनिया-ए-दिल तबाह किये जा रहा हूँ मैं
सर्फ़-ए-निगाह-ओ-आह किये जा रहा हूँ मैं

फर्द-ए-अमल सिआह किये जा रहा हूँ मैं
रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं

ऐसे भी इक निगाह किये जा रहा हूँ मैं
ज़र्रों को मेहर-ओ-माह किये जा रहा हूँ मैं

मुझ से लगे हैं इश्क की अज़मत को चार चाँद
खुद हुश्न को गवाह किये जा रहा हूँ मैं

मासूमी
-ए-जमाल को भी जिस पे रश्क हो
ऐसे भी कुछ गुनाह किये जा रहा हूँ मैं

आगे कदम बढाएं जिन्हें सूझता नहीं
रोशन चिराग-ए-राह किये जा रहा हूँ मैं


तानाकीद-ए-हुश्न मसलहत-ए-खाश-ए-इश्क है
ये जुर्म गाह गाह किये जा रहा हूँ मैं

गुलशन परस्त हुँ मुझे गुल ही नहीं अज़ीज़
काँटों से भी निबाह किये जा रह हूँ मैं

यूं ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तेरे बगैर
जैसे कोई गुनाह किये जा रह हूँ मैं

मुझसे अदा हुआ है जिगर जुश्तजू का हक
हर जर्रे को गवाह किये जा रह हूँ मैं

- जिगर मोरादाबादी

ये तवायफ़ भी इस्मत बचा ले गयी

सर से चादर बदन से काबा ले गयी,
ज़िंदगी हम फकीरों से क्या ले गयी।

मेरी मुट्ठी में सूखे हुए फूल हैं,
खुशबुओं को दिखाकर हवा ले गयी।

मैं समंदर के सीने में चट्टान था,
रात एक मौज आई बहा ले गयी।

हम जो कागज के अश्कों के भीगे हुए,
क्यों चिरागों की लौ तक हवा ले गयी।

चाँद ने रात मुझको जगाकर कहा,
एक लड़की तुम्हारा पता ले गयी।

मेरी शोहरत सियासत से मह्फूस है,
ये तवायफ़ भी इस्मत बचा ले गयी।

- डॉ बशीर बदर

शकीब अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफी है

शकीब अपने तआरुफ़ के लिए ये बात काफी है,
हम उससे हट के चलते हैं जो राह आम होती है।

- शकीब जलाली

किसी को देके दिल कोई नवासंज-ए-फुगाँ क्यों हो

किसी को देके दिल कोई नवासंज-ए-फुगाँ क्यों हो,
न जब हो दिल ही सीने में तो फिर मुँह में जबां क्यों हो।
[नवासंज-ए-फुगाँ = to cry out]

वो अपनी खू न छोडेंगे हम अपनी वजा क्यों बदलें,
सुबक-सार बनके क्या पूछें कि हम सर-गिरां क्यों हो।
[खू = habit; वजा = behavior; सुबक-सार = embarrassed; सर-गिरां = arrogant]

किया गम ख्वार ने रुसवा लगे आग इस मोहब्बत को,
न लाये ताब जो गम की वो मेरा राज़दां क्यों हो।
[गम-ख्वार = one who consoles; ताब = patience; राज़दान = confident]

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क जब सर फोड़ना ठहरा,
तो फिर ए संगदिल तेरा संग-ए-आस्तां क्यों हो।
[संग-ए-आस्तां = threshold]

क़फ़स में मुझसे रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम,
गिरी है जिसपे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यों हो।
[क़फ़स = cage; रूदाद = report]

ये कह सकते हो हम दिल में नहीं है पर ये बताओ,
कि जब दिल में तुम ही तुम हो तो आंखों से निहां क्यों हो।
[निहां = hidden]

गलत है जज्बा-ए-दिल का शिकवा देखो जुर्म किसका है,
न खीन्चों गर तुम अपने को कशाकश दरमियाँ क्यों हो।
[शिकवा = complaint; कशाकश = struggle; दरमियाँ = between]

ये फितना आदमी की खानावीरानी को क्या कम है,
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आसमां क्यों हो।
[फितना = quarrel; खानावीरानी = ruining of one's home]

यही है आजमाना तो सताना किसको कहते हैं,
अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तिहाँ क्यों हो।
[अदू = enemy]

कहा तुमने कि क्यों हो ग़ैर के मिलने में रुसवाई,
बजा कहते हो सच कहते हो फिर कहिये की हाँ क्यों हो।
[रुसवाई = disgrace; बजा = correct]

निकाला चाहता है काम क्या तानों से तू ग़ालिब,
तेरे बेमहर कहने से वो तुझ पर मेहरबान क्यों हो।
[ताना = taunt; बेमेहर = unkind]

- मिर्ज़ा ग़ालिब

Thursday, October 18, 2007

दस्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्जां है, तेरी आवाज़ के साये तेरे होठों के सराब।
दस्त-ए-तन्हाई में दूरी के खास-ओ-खाक तले, खिल रहे हैं तेरे पहलू के समान और गुलाब।

उठ रही है कहीं कुरबत से तेरी साँस की आंच, अपनी खुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम।
दूर उफक पर चमकती हुई कतरा कतरा, गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम।

उस कदर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रक्खा है, दिल के रुखसार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ।
यूं गुमां होता है गरचे है अभी सुबह-ए-फिराक, ढल गया हिज्र का दिन आ भी गयी वस्ल की रात।

- फैज़ अहमद साहब

अब तो घबरा के ये कहते हैं!

अब तो घबरा के ये कहते हैं के मर जायेंगे,
मर के भी चेन ना पाया तो किधर जायेंगे।

हम नहीं वो जो करें ख़ून का दावा तुझपर,
बल्कि पूछेगा खुदा भी तो मुकर जायेंगे।

आग दोजख की भी हो जायेगी पानी पानी जब,
ये आसी अर्क-ए-शर्म से तर जायेंगे।

शोला-ए-आह को बिजली की तरह चमकाऊं,
पर मुझे डर है कि वो देख कर डर जायेंगे,

लाये जो मस्त हैं तुर्बत पे गुलाबी आंखें,
और गर कुछ नहीं, दो फूल तो धर जायेंगे।

नहीं पाएगा निशां कोई हमारा हरगिज़,
हम जहाँ से रवीश-ए-नज़र जायेंगे।

रुख-ए-रोशन से नकाब उलट देखो तुम,
मेहर-ओ-माह नज़रों से यारों की उतर जायेंगे।

पहुंचेंगे रहगुज़र-ए-यार तलक हम क्यूं कर,
पहले जब तक ना दो आलम से गुज़र जायेंगे।

"जौक" जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला,
उनको मैखाने में ले आओ सँवर जायेंगे।

- उस्ताद जौक

बिखर गए सब ताने बाने!

बिखर गए सब ताने बाने, रिश्तेदारी टूट गयी,
अपने पराये रूठ गए तकदीर से यारी टूट गयी।

ये है तेरा वो है मेरा भूल जा किस्से माजी के,
पलटा है तकदीर ने पासा दावादारी टूट गयी।

जो भी मिला तकदीर से तुझको उसपे ताना'अत कर लेना,
अपना अपना दाना है अब साझेदारी टूट गयी।

आँधी आयी गुलशन उजड़ा पत्तों की औकात है क्या,
जिसपे तेरे तिनके थे वो शाख बेचारी टूट गयी।

आज हमारे दिल का सफीना आके भंवर में डूब गया,
यास ने अपने पाओं पसारे आस हमारी टूट गयी।

खेल है सारे किस्मत के "शैदा" शिकवा ठीक नहीं,
तेरे दावे झूठे निकले तेरी बारी टूट गयी।

- मो वाली शैदा, मेरठ

मत कहो आकाश में कोहरा घना है!

मत कहो आकाश में कोहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।

सुर्य हमने भी नहीं देखा सुबह का,
क्या कारोगे सुर्य का क्या देखना है।

हो गयी हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है।

दोस्तों अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है.

कवि: दुष्यंत कुमार.

आंख प्यासी है कोई मंज़र दे!

आंख प्यासी है कोई मंज़र दे,
इस ज़ज़ीरे को भी समंदर दे.

अपना चेहरा तलाश करना है,
ग़र नहीं आईना तो पत्थर दे.

बंद कलियों को चाहिऐ शबनम,
इन चिरागों में रोशनी भर दे.

पत्थरों के सरों से कर्ज़ उतार,
इस सदी को कोई पयम्बर दे.

कहकहों में गुज़र रही है हयात,
अब किसी दिन उदास ही कर दे.

फिर ना कहना के खुद्खुशी है गुनाह,
आज फुर्सत है फैसला कर दे.

शायर: राहत इन्दोरी