आंखों का रंग बात का लहजा बदल गया
वो शख्स एक शाम में कितना बदल गया
कुछ दिन तो मेरा अक्स रहा आइना नक्स
फिर यूं हुआ के खुद मेरा चेहरा बदल गया
जब अपने अपने हाल पे हम तुम न रह सके
तो क्या हुआ जो हमसे जमाना बदल गया
क़दमों तले जो रेत बिछी थी वो चल पड़ी
उसने छुड़ाया हाथ तो सेहरा बदल गया
कोई भी चीज अपनी जगह पर नहीं रही
जाते ही एक शख्स के क्या क्या बदल गया
इक सर्खोसी की मौज ने कैसे किया कमाल
वो भी नियाज़ सारा का सारा बदल गया
उठ कर चला गया कोई वक्फे के दरम्यान
पर्दा उठा तो सारा तमाशा बदल गया
हैरत से सारे लफ्ज़ उसे देखते रहे
बातों में अपनी बात को कैसे बदल गया
शायद वफ़ा के खेल से उकता गया था वो
मंजिल के पास आके जो रस्ता बदल गया
कायम किसी हाल पे दुनिया नहीं रही
ताबीर खो गयी कभी सपना बदल गया
मंज़र का रंग असल में साया था रंग का
जिस ने उसे जिधर से भी देखा बदल गया
अन्दर के मौसमों की खबर उसको हो गयी
उस नौबहार नाज़ का चेहरा बदल गया
आंखों में जितने अस्क थे जुगनू से बन गए
वो मुस्कुराया और मेरी दुनिया बदल गया
अपनी गली में अपना ही घर ढूँढते हैं लोग
हंज़ला ये कौन शहर का नक्सा बदल गया
Friday, November 23, 2007
जगमगाते शहर की
जगमगाते शहर की रानाइयों में क्या न था
ढूंढने निकला था जिसको मैं वही चेहरा न था
रेत पे लिख्खे हुए नामों को पढ़कर देख लो
आज तनहा रह गया हूँ कल मगर ऐसा न था
हम वही तुम भी वही मौसम वही मंज़र वही
फासला बढ़ जाएगा इतना कभी सोचा न था
फिक्र के दर पर कोई आहट कोई दस्तक नहीं
वो फ़क़त बीमार जिस का कोई हमसाया न था
छोड़ आया जिन सफीनों को तलातुम के करीब
नाखुदा उनमें तेरा शायद कोई अपना न था
- अमीर कज़ल्बाश
ढूंढने निकला था जिसको मैं वही चेहरा न था
रेत पे लिख्खे हुए नामों को पढ़कर देख लो
आज तनहा रह गया हूँ कल मगर ऐसा न था
हम वही तुम भी वही मौसम वही मंज़र वही
फासला बढ़ जाएगा इतना कभी सोचा न था
फिक्र के दर पर कोई आहट कोई दस्तक नहीं
वो फ़क़त बीमार जिस का कोई हमसाया न था
छोड़ आया जिन सफीनों को तलातुम के करीब
नाखुदा उनमें तेरा शायद कोई अपना न था
- अमीर कज़ल्बाश
Thursday, November 22, 2007
चुपके चुपके
चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है
हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है
बाह्जारां इजतिराब-ओ-सद हजारां इश्तियाक
तुझसे वो पहले पहल दिल का लगाना याद है
तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दांतों में वो उंगली दबाना याद है
खींच लेना वो मेरा परदे का कोना दफ्फतन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है
जानकार सोता तुझे वो कासा-ए-पाबोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है
तुझको जब तनहा कभी पाना तो अज राह-ए-लिबाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारखाना याद है
ग़ैर की नज़रों से बचकर सबकी मर्ज़ी के खिलाफ
वी तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है
आ गया गर वस्ल की शब भी कभी ज़िक्र-ए-फिराक
वी तेरा रो रो के मुझको भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
देखना मुझको जो बर्गास्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर रूठ जान याद है
चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुजरीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
वक़्त-ए-रुखसत अलविदा का लफ्ज़ कहने के लिए
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है
बावजूद-ए-इद्दा-ए-इत्ताका हसरत मुझे
आज तक अहद-ए-वफ़ा का ये फसाना याद है
-हसरत मोहनी
हमको अब तक आशिकी का वो ज़माना याद है
बाह्जारां इजतिराब-ओ-सद हजारां इश्तियाक
तुझसे वो पहले पहल दिल का लगाना याद है
तुझसे मिलते ही वो बेबाक हो जाना मेरा
और तेरा दांतों में वो उंगली दबाना याद है
खींच लेना वो मेरा परदे का कोना दफ्फतन
और दुपट्टे से तेरा वो मुँह छुपाना याद है
जानकार सोता तुझे वो कासा-ए-पाबोसी मेरा
और तेरा ठुकरा के सर वो मुस्कुराना याद है
तुझको जब तनहा कभी पाना तो अज राह-ए-लिबाज़
हाल-ए-दिल बातों ही बातों में जताना याद है
जब सिवा मेरे तुम्हारा कोई दीवाना न था
सच कहो क्या तुमको भी वो कारखाना याद है
ग़ैर की नज़रों से बचकर सबकी मर्ज़ी के खिलाफ
वी तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है
आ गया गर वस्ल की शब भी कभी ज़िक्र-ए-फिराक
वी तेरा रो रो के मुझको भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पाँव आना याद है
देखना मुझको जो बर्गास्ता तो सौ सौ नाज़ से
जब मना लेना तो फिर रूठ जान याद है
चोरी चोरी हम से तुम आकर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुजरीं पर अब तक वो ठिकाना याद है
वक़्त-ए-रुखसत अलविदा का लफ्ज़ कहने के लिए
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है
बावजूद-ए-इद्दा-ए-इत्ताका हसरत मुझे
आज तक अहद-ए-वफ़ा का ये फसाना याद है
-हसरत मोहनी
ये कैसी अजब ज़िंदगी है
ये कैसी अजब ज़िंदगी की घडी है
की जब साए की भी रफाकत नहीं है
कोई शख्स उनको नया जो मिल तो
कहा के पुराने की आदत नहीं है
मेरी आँख बोझल न हो गर तो कैसे
कोई बोझ सहने की आदत नहीं है
कोई आके खोले मेरी बंद आंखें
मुझे अब जगने की आदत नहीं है
कोई खल्क की बंदगी जो करे गर
तो ये बंदगी है, इबादत नहीं है
जो मफ्लूम पूछे कोई अब्द का तो
कहें, ये बताने की आदत नहीं है
सफर ये कठिन है बताया था उनको
उन्हें साथ चलने मैं राहत नहीं है
जो हर पल हमें आजमाते रहे हों
उन्हें आजमाने की आदत नहीं है
वफ़ा लफ्ज़ कहते रहे उम्र भर जो
उन्हें ये निभाने की आदत नहीं है
जो तुम खेलते हो तो खेलो दिलों से
हमें दिल लगाने की आदत नहीं है
जो कहते थे तुमको है सपनों मैं देखा
वो कहते हैं ख़्वाबों की आदत नहीं है
किसी की हंसी याद आती है वर्ना
हमें मुस्कुराने की आदत नहीं है
जो देखी वो आंखें, कदम उनके बोझल
कहें हमको मंजिल की आदत नहीं है
रहे दस्त के उम्र भर जो मुसाफिर
कदम दो कदम की भी आदत नहीं है
नया शहर हर दिन, नया दर हर एक शब
डगर पूछने की भी हाज़त नहीं है
हमें घर मिला भी तो उस वक़्त साजिद
के जब घर को जाने की आदत नहीं है
की जब साए की भी रफाकत नहीं है
कोई शख्स उनको नया जो मिल तो
कहा के पुराने की आदत नहीं है
मेरी आँख बोझल न हो गर तो कैसे
कोई बोझ सहने की आदत नहीं है
कोई आके खोले मेरी बंद आंखें
मुझे अब जगने की आदत नहीं है
कोई खल्क की बंदगी जो करे गर
तो ये बंदगी है, इबादत नहीं है
जो मफ्लूम पूछे कोई अब्द का तो
कहें, ये बताने की आदत नहीं है
सफर ये कठिन है बताया था उनको
उन्हें साथ चलने मैं राहत नहीं है
जो हर पल हमें आजमाते रहे हों
उन्हें आजमाने की आदत नहीं है
वफ़ा लफ्ज़ कहते रहे उम्र भर जो
उन्हें ये निभाने की आदत नहीं है
जो तुम खेलते हो तो खेलो दिलों से
हमें दिल लगाने की आदत नहीं है
जो कहते थे तुमको है सपनों मैं देखा
वो कहते हैं ख़्वाबों की आदत नहीं है
किसी की हंसी याद आती है वर्ना
हमें मुस्कुराने की आदत नहीं है
जो देखी वो आंखें, कदम उनके बोझल
कहें हमको मंजिल की आदत नहीं है
रहे दस्त के उम्र भर जो मुसाफिर
कदम दो कदम की भी आदत नहीं है
नया शहर हर दिन, नया दर हर एक शब
डगर पूछने की भी हाज़त नहीं है
हमें घर मिला भी तो उस वक़्त साजिद
के जब घर को जाने की आदत नहीं है
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
जहाँ पेड़ पर चार दाने लगे
हज़ारों तरफ से निशाने लगे
हुई शाम यादों के इक गाँव में
परिंदे उदासी के आने लगे
घडी दो घडी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते आते जमाने लगे
कभी बस्तियां दिल की यूं भी बसीं
दुकानें खुलीं कारखाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढाई लिखाई का मौसम कहाँ
किताबों में ख़त आने जाने लगे
- बशीर बद्र
हज़ारों तरफ से निशाने लगे
हुई शाम यादों के इक गाँव में
परिंदे उदासी के आने लगे
घडी दो घडी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते आते जमाने लगे
कभी बस्तियां दिल की यूं भी बसीं
दुकानें खुलीं कारखाने लगे
वहीं ज़र्द पत्तों का कालीन है
गुलों के जहाँ शामियाने लगे
पढाई लिखाई का मौसम कहाँ
किताबों में ख़त आने जाने लगे
- बशीर बद्र
Friday, November 2, 2007
हाथ मेरा ऐ मेरी परछाई
हाथ मेरा ऐ मेरी परछाई तू ही थाम ले
एक मुद्दत से मुझे तो सूझता कुछ भी नहीं
शहर-ए-शब में कौनसा घर था न दी जिस पर सदा
नींद के अंधे मुसाफिर को मिल कुछ भी नहीं
उम्र भर उम्र-ए-गुरेजां से न मेरी बन सकी
जो करे करती रहे मैं पूछता कुछ भी नहीं
वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देखकर
मैंने उसको आखरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
- ???
एक मुद्दत से मुझे तो सूझता कुछ भी नहीं
शहर-ए-शब में कौनसा घर था न दी जिस पर सदा
नींद के अंधे मुसाफिर को मिल कुछ भी नहीं
उम्र भर उम्र-ए-गुरेजां से न मेरी बन सकी
जो करे करती रहे मैं पूछता कुछ भी नहीं
वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देखकर
मैंने उसको आखरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
- ???
अजब सी बात होती है
अजब सी बात होती है मोहब्बत के फ़साने में
कतल दर क़त्ल होते हैं सनम के मुस्कुराने में
मज़ा उनको भी आता है, मज़ा हमको भी आता है
उन्हें नज़रें चुराने में, हमें नज़रें मिलाने में
- चिराग
कतल दर क़त्ल होते हैं सनम के मुस्कुराने में
मज़ा उनको भी आता है, मज़ा हमको भी आता है
उन्हें नज़रें चुराने में, हमें नज़रें मिलाने में
- चिराग
ज़िंदगी जब भी
ज़िंदगी जब भी तेरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
सुर्ख फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यों है
अब तो हर वक़्त तेरी याद सताती है हमें
- शहरयार
ये ज़मीं चाँद से बेहतर नज़र आती है हमें
सुर्ख फूलों से महक उठती हैं दिल की राहें
दिन ढले यूँ तेरी आवाज़ बुलाती है हमें
याद तेरी कभी दस्तक कभी सरगोशी से
रात के पिछले पहर रोज़ जगाती है हमें
हर मुलाक़ात का अंजाम जुदाई क्यों है
अब तो हर वक़्त तेरी याद सताती है हमें
- शहरयार
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