Thursday, January 17, 2008

अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको

अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूँ तेरा, तू नसीब अपना बनाले मुझको

मैं जो कांटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूडे में सजाले मुझको

मैं खुले दर के किसी घर का सामान हूँ प्यारा
तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको

तर्क-ए-उल्फत की कसम भी कोई होती है कसम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको

मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझको

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको

मैं खुद को बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको

- क़तील शफाई

कभी हम मिले भी तो क्या मिले

कभी हम मिले भी तो क्या मिले, वही दूरियां वही फासले
न कभी हमारे कदम बढे, न कभी तुम्हारी झिझक गयी

तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख-ए-गुलाब है, जो हवा चली तो लचक गयी

- डॉ बशीर बदर

ज़िक्र-ए-शब-ए-फिराक

ज़िक्र-ए-शब-ए-फिराक से वह्सत उसे भी थी
मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी

मुझको भी शौक था नए चेहरों की दीद का
रास्ता बदल के चलने की आदत उसे भी थी

उस रात देर तक वो रहा महव-ए-गुफ्तगू
मसरूफ मैं भी कम था फरागत उसे भी थी

सुनता था वो भी सबसे पुरानी कहानियाँ
ताज़ा रफाकतों की ज़रूरत उसे भी थी

मुझसे बिछड़ के शहर में घुल्मिल गया वो शख्स
हालाकिं शहर भर से रकाबत उसे भी थी

वो मुझसे बढ़ के ज़ब्त का आदि था जी गया
वर्ना हर एक सांस क़यामत उसे भी थी

- मोहसिन नकवी

मुस्कुरती हुई धनक है वही

मुस्कुराती हुई धनक है वही,
उस बदन में चमक दमक है वही

फूल कुम्हला गए उजालों के
सांवली शाम में नमक है वही

अब भी चेहरा चराग लगता है
भूल गया है मगर चमक है वही

कोई सिलसिला ज़रूर टूटा है
गुनगुनाती हुई खनक है वही

प्यार किसका मिल था मिटटी में
इस चमेली तले महक है वही

- डॉ बशीर बदर

ग़ालिब छूटी शराब

गालिब छूटी शराब, पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में।

- मिर्ज़ा ग़ालिब