कहाँ आके रुकने थे रास्ते, कहाँ मोड़ था, उसे भूल जा
जो मिल गया उसे याद रख, जो नहीं मिला उसे भूल जा।
वो तेरे नसीब की बारिशें, किसी और छत पे बरस गयीं
दिल-ऐ-बेखबर मेरी बात सुन, उसे भूल जा, उसे भूल जा।
में तो गुम था तेरे ही देह्याँ में, तेरी आस तेरे गुमान में
सब कह गई मेरे कान में, मेरे पास आ, उसे भूल जा।
किसी की आँख में नहीं अश्क-ऐ-गम, तेरे बाद कुछ भी नहीं है कम
तुझे ज़िंदगी ने भुला दिया, तू भी मुस्कुरा, उसे भूल जा।
न वो आँख ही तेरी आँख थी, न वो ख्वाब ही तेरा ख्वाब था
दिल-ऐ-मुन्तजिर तो यो किस लिए, तेरा जागना, उसे भूल जा।
जो ये रात दिन का है खेल सा, उसे देख इसपे यकीं न कर
नहीं अक्स कोई भी मुस्तकिल, सर-ऐ-आइना उसे भूल जा।
जो बिसात-ऐ-जां ही उलट गया, वो जो रास्ते में पलट गया
उसे रोकने से हुसूल क्या, उसे मत बुला, उसे भूल जा।
- अमजद इस्लाम अमजद
Sunday, June 1, 2008
कोई हमनफस नहीं है, कोई राज्दां नहीं है
कोई हमनफस नहीं है, कोई राज्दां नहीं है
फकत इक दिल था मेरा सो वो मेहेरबां नहीं है।
किसी और गम में इतनी खलिश-ऐ-निशाँ नहीं है
गम-ऐ-दिल मेरा रफीको गम-ऐ-रायेगां नहीं है।
मेरी रूह की हकीक़त मेरे आंशुओं से पूछो
मेरा मज्लिसी तबस्सुम मेरा तर्जुमा नहीं है।
किसी आँख को सदा दो किसी जुल्फ को पुकारो
बड़ी धूप पड़ रही है कोई सायेबां नहीं है।
इन्ही पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ
मेरे घर के रास्तों में कोई कहकशां नहीं है।
- मुस्तफा जैदी
फकत इक दिल था मेरा सो वो मेहेरबां नहीं है।
किसी और गम में इतनी खलिश-ऐ-निशाँ नहीं है
गम-ऐ-दिल मेरा रफीको गम-ऐ-रायेगां नहीं है।
मेरी रूह की हकीक़त मेरे आंशुओं से पूछो
मेरा मज्लिसी तबस्सुम मेरा तर्जुमा नहीं है।
किसी आँख को सदा दो किसी जुल्फ को पुकारो
बड़ी धूप पड़ रही है कोई सायेबां नहीं है।
इन्ही पत्थरों पे चलकर अगर आ सको तो आओ
मेरे घर के रास्तों में कोई कहकशां नहीं है।
- मुस्तफा जैदी
अब तो तबिअत भी कुछ हमसे जुदा लगती है!
अब तो तबिअत भी कुछ हमसे जुदा लगती है
साँस लेता हूँ तो ज़ख्मों को हवा लगती है।
कभी राज़ी तो कभी मुझसे खफा लगती है
ज़िंदगी तू ही बता तू मेरी क्या लगती है?
- अताउल्ला खान
साँस लेता हूँ तो ज़ख्मों को हवा लगती है।
कभी राज़ी तो कभी मुझसे खफा लगती है
ज़िंदगी तू ही बता तू मेरी क्या लगती है?
- अताउल्ला खान
Saturday, February 9, 2008
आवारा
आज भी हैं मेरे क़दमों के निशाँ आवारा
तेरी गलियों में भटकते थे जहाँ आवारा
तुमसे क्या बिछड़े जो ये हो गयी अपनी हालत
जैसे हो जाये हवाओं से दुआ आवारा
मेरे शेरों की थी पहचान उन्ही के दम से
उसको खो के हुए थे नाम-ओ-निशां आवारा
जिसको भी चाहा उसे टूट के चाहा "रशीद"
कम मिलेंगे तुम्हें हम जैसे यहाँ आवारा
- मुमताज रशीद
तेरी गलियों में भटकते थे जहाँ आवारा
तुमसे क्या बिछड़े जो ये हो गयी अपनी हालत
जैसे हो जाये हवाओं से दुआ आवारा
मेरे शेरों की थी पहचान उन्ही के दम से
उसको खो के हुए थे नाम-ओ-निशां आवारा
जिसको भी चाहा उसे टूट के चाहा "रशीद"
कम मिलेंगे तुम्हें हम जैसे यहाँ आवारा
- मुमताज रशीद
अपना गम लेके
अपना गम लेके कहीं और जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाये
जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं
उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाये
बाग़ में जाने से आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उडाया जाये
खुद्खुशी करने की हिम्मत नहीं होती सबमें
और कुछ दिन यूंही औरों को सताया जाये
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं करलें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये
- निदा फज़ली
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाये
जिन चिरागों को हवाओं का कोई खौफ नहीं
उन चिरागों को हवाओं से बचाया जाये
बाग़ में जाने से आदाब हुआ करते हैं
किसी तितली को न फूलों से उडाया जाये
खुद्खुशी करने की हिम्मत नहीं होती सबमें
और कुछ दिन यूंही औरों को सताया जाये
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं करलें
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये
- निदा फज़ली
Thursday, January 17, 2008
अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
अपने हाथों की लकीरों में बसाले मुझको
मैं हूँ तेरा, तू नसीब अपना बनाले मुझको
मैं जो कांटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूडे में सजाले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का सामान हूँ प्यारा
तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको
तर्क-ए-उल्फत की कसम भी कोई होती है कसम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझको
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको
मैं खुद को बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
- क़तील शफाई
मैं हूँ तेरा, तू नसीब अपना बनाले मुझको
मैं जो कांटा हूँ तो चल मुझसे बचाकर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूडे में सजाले मुझको
मैं खुले दर के किसी घर का सामान हूँ प्यारा
तू दबे पाँव कभी आके चुराले मुझको
तर्क-ए-उल्फत की कसम भी कोई होती है कसम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझको
मुझसे तू पूछने आया है वफ़ा के माने
ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझको
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सताले मुझको
मैं खुद को बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन
कर दिया तूने अगर मेरे हवाले मुझको
- क़तील शफाई
कभी हम मिले भी तो क्या मिले
कभी हम मिले भी तो क्या मिले, वही दूरियां वही फासले
न कभी हमारे कदम बढे, न कभी तुम्हारी झिझक गयी
तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख-ए-गुलाब है, जो हवा चली तो लचक गयी
- डॉ बशीर बदर
न कभी हमारे कदम बढे, न कभी तुम्हारी झिझक गयी
तुझे भूल जाने की कोशिशें कभी कामयाब न हो सकीं
तेरी याद शाख-ए-गुलाब है, जो हवा चली तो लचक गयी
- डॉ बशीर बदर
ज़िक्र-ए-शब-ए-फिराक
ज़िक्र-ए-शब-ए-फिराक से वह्सत उसे भी थी
मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी
मुझको भी शौक था नए चेहरों की दीद का
रास्ता बदल के चलने की आदत उसे भी थी
उस रात देर तक वो रहा महव-ए-गुफ्तगू
मसरूफ मैं भी कम था फरागत उसे भी थी
सुनता था वो भी सबसे पुरानी कहानियाँ
ताज़ा रफाकतों की ज़रूरत उसे भी थी
मुझसे बिछड़ के शहर में घुल्मिल गया वो शख्स
हालाकिं शहर भर से रकाबत उसे भी थी
वो मुझसे बढ़ के ज़ब्त का आदि था जी गया
वर्ना हर एक सांस क़यामत उसे भी थी
- मोहसिन नकवी
मेरी तरह किसी से मोहब्बत उसे भी थी
मुझको भी शौक था नए चेहरों की दीद का
रास्ता बदल के चलने की आदत उसे भी थी
उस रात देर तक वो रहा महव-ए-गुफ्तगू
मसरूफ मैं भी कम था फरागत उसे भी थी
सुनता था वो भी सबसे पुरानी कहानियाँ
ताज़ा रफाकतों की ज़रूरत उसे भी थी
मुझसे बिछड़ के शहर में घुल्मिल गया वो शख्स
हालाकिं शहर भर से रकाबत उसे भी थी
वो मुझसे बढ़ के ज़ब्त का आदि था जी गया
वर्ना हर एक सांस क़यामत उसे भी थी
- मोहसिन नकवी
मुस्कुरती हुई धनक है वही
मुस्कुराती हुई धनक है वही,
उस बदन में चमक दमक है वही
फूल कुम्हला गए उजालों के
सांवली शाम में नमक है वही
अब भी चेहरा चराग लगता है
भूल गया है मगर चमक है वही
कोई सिलसिला ज़रूर टूटा है
गुनगुनाती हुई खनक है वही
प्यार किसका मिल था मिटटी में
इस चमेली तले महक है वही
- डॉ बशीर बदर
उस बदन में चमक दमक है वही
फूल कुम्हला गए उजालों के
सांवली शाम में नमक है वही
अब भी चेहरा चराग लगता है
भूल गया है मगर चमक है वही
कोई सिलसिला ज़रूर टूटा है
गुनगुनाती हुई खनक है वही
प्यार किसका मिल था मिटटी में
इस चमेली तले महक है वही
- डॉ बशीर बदर
ग़ालिब छूटी शराब
गालिब छूटी शराब, पर अब भी कभी कभी,
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में।
- मिर्ज़ा ग़ालिब
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में।
- मिर्ज़ा ग़ालिब
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