Thursday, November 22, 2007

ये कैसी अजब ज़िंदगी है

ये कैसी अजब ज़िंदगी की घडी है
की जब साए की भी रफाकत नहीं है
कोई शख्स उनको नया जो मिल तो
कहा के पुराने की आदत नहीं है

मेरी आँख बोझल हो गर तो कैसे
कोई बोझ सहने की आदत नहीं है
कोई आके खोले मेरी बंद आंखें
मुझे अब जगने की आदत नहीं है

कोई खल्क की बंदगी जो करे गर
तो ये बंदगी है, इबादत नहीं है
जो मफ्लूम पूछे कोई अब्द का तो
कहें, ये बताने की आदत नहीं है

सफर ये कठिन है बताया था उनको
उन्हें साथ चलने मैं राहत नहीं है
जो हर पल हमें आजमाते रहे हों
उन्हें आजमाने की आदत नहीं है

वफ़ा लफ्ज़ कहते रहे उम्र भर जो
उन्हें ये निभाने की आदत नहीं है
जो तुम खेलते हो तो खेलो दिलों से
हमें दिल लगाने की आदत नहीं है

जो कहते थे तुमको है सपनों मैं देखा
वो कहते हैं ख़्वाबों की आदत नहीं है
किसी की हंसी याद आती है वर्ना
हमें मुस्कुराने की आदत नहीं है

जो देखी वो आंखें, कदम उनके बोझल
कहें हमको मंजिल की आदत नहीं है
रहे दस्त के उम्र भर जो मुसाफिर
कदम दो कदम की भी आदत नहीं है

नया शहर हर दिन, नया दर हर एक शब
डगर पूछने की भी हाज़त नहीं है
हमें घर मिला भी तो उस वक़्त साजिद
के जब घर को जाने की आदत नहीं है

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