हाथ मेरा ऐ मेरी परछाई तू ही थाम ले
एक मुद्दत से मुझे तो सूझता कुछ भी नहीं
शहर-ए-शब में कौनसा घर था न दी जिस पर सदा
नींद के अंधे मुसाफिर को मिल कुछ भी नहीं
उम्र भर उम्र-ए-गुरेजां से न मेरी बन सकी
जो करे करती रहे मैं पूछता कुछ भी नहीं
वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देखकर
मैंने उसको आखरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं
- ???
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1 comment:
shayar zahoor nazar
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