Friday, November 2, 2007

हाथ मेरा ऐ मेरी परछाई

हाथ मेरा ऐ मेरी परछाई तू ही थाम ले
एक मुद्दत से मुझे तो सूझता कुछ भी नहीं

शहर-ए-शब में कौनसा घर था न दी जिस पर सदा
नींद के अंधे मुसाफिर को मिल कुछ भी नहीं

उम्र भर उम्र-ए-गुरेजां से न मेरी बन सकी
जो करे करती रहे मैं पूछता कुछ भी नहीं

वो भी शायद रो पड़े वीरान कागज़ देखकर
मैंने उसको आखरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं

- ???

1 comment:

nimish said...

shayar zahoor nazar