Thursday, October 18, 2007

आंख प्यासी है कोई मंज़र दे!

आंख प्यासी है कोई मंज़र दे,
इस ज़ज़ीरे को भी समंदर दे.

अपना चेहरा तलाश करना है,
ग़र नहीं आईना तो पत्थर दे.

बंद कलियों को चाहिऐ शबनम,
इन चिरागों में रोशनी भर दे.

पत्थरों के सरों से कर्ज़ उतार,
इस सदी को कोई पयम्बर दे.

कहकहों में गुज़र रही है हयात,
अब किसी दिन उदास ही कर दे.

फिर ना कहना के खुद्खुशी है गुनाह,
आज फुर्सत है फैसला कर दे.

शायर: राहत इन्दोरी

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