Thursday, October 18, 2007

दस्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लर्जां है, तेरी आवाज़ के साये तेरे होठों के सराब।
दस्त-ए-तन्हाई में दूरी के खास-ओ-खाक तले, खिल रहे हैं तेरे पहलू के समान और गुलाब।

उठ रही है कहीं कुरबत से तेरी साँस की आंच, अपनी खुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम।
दूर उफक पर चमकती हुई कतरा कतरा, गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम।

उस कदर प्यार से ऐ जान-ए-जहाँ रक्खा है, दिल के रुखसार पे इस वक़्त तेरी याद ने हाथ।
यूं गुमां होता है गरचे है अभी सुबह-ए-फिराक, ढल गया हिज्र का दिन आ भी गयी वस्ल की रात।

- फैज़ अहमद साहब

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