Monday, October 22, 2007

रकीब से

आ कि वाबस्ता है उस हुस्न की यादें तुझसे
जिसने इस दिल को परिखाना बना रक्खा है
जिसकी उल्फत में भुला रक्खी थी दुनिया हमने
दहर को दहर का अफसाना बना रक्खा है।

तूने देखी है वो पेशानी वो रुखसार वो होंठ
ज़िंदगी जिनके तसव्वुर में लुटा दी हमने
तुझपे उट्ठिं हैं वो खोई खोई साहिर आंखें
तुझको मालुम है क्यों उम्र गँवा दी हमने।

- फैज़

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