Tuesday, October 30, 2007

बिछड़ा है एक बार तो

बिछड़ा है एक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा

एक बार जिसे चाट गयी धूप की ख्वाहिश
फिर शाख पे उस फूल को खिलते नहीं देखा

यक्लख्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आयीं
जिस पेड़ को आंधी में भी हिलते नहीं देखा

काँटों में गिरे फूल को चूम आएँगी लेकिन
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा

-परवीन शकीर

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