Tuesday, October 30, 2007

गुरेज़ शब से, सहर से कलाम रखते थे

गुरेज़ शब से, सहर से कलाम रखते थे
कभी वो दिन थे कि जुल्फों में शाम रखते थे

तुम्हारे हाथ लगे हैं तो जो करो सो करो
वगरना तुम से तो हम सौ गुलाम रखते थे

हमें भी घेर लिया घर कि जाम ने तो खुला
कुछ और लोग भी उसमें कयाम रखते थे

ये और बात हमें दोस्ती न रास आई
हवा थी साथ तो खुशबू मकाम रखते थे

न जाने कौन सी रुत मे बिछड़ गए वो लोग
जो अपने दिल मे बहुत एहतराम रखते थे

- नौशी गिलानी

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