Monday, October 22, 2007

अक्स खुशबू हूँ!

अक्स खुशबु हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई

कांप उठती हूँ मैं ये सोचकर तन्हाई में
मेरे चेहरे पे तेरा नाम न पढ़ ले कोई

जिस तरह ख्वाब मेरे हो गए रेजा रेजा
इस तरह से न कभी टूटके बिखरे कोई

मैं तो उस दिन से हरासां हूँ कि जब हुकुम मिले
खुश्क फूलों को किताबों में न रक्खे कोई

अब तो इस राह से वो शख्स गुजरता ही नहीं
अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झांके कोई

कोई आहट कोई आवाज़ कोई चाप नहीं
दिल की गलियां बड़ी सुनसान हैं आये कोई

- परवीन शकीर

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